हिमाचल प्रदेश अपने प्राकृतिक सौंदर्य के लिए तो पूरे विश्वभर में प्रसिद्ध है ही, किन्तु सांस्कृतिक रूप से भी यदि देखा जाए तो हिमाचल सर्वथा एक अलग और अनूठा राज्य है। यहां के जनजीवन और संस्कृति पर सर्वाधिक प्रभाव यहां के गांव-गांव में स्थापित देवताओं एवं देवियों का है। या यूं कहे कि इस संस्कृति का मूल ही ये देवी-देवता हैं। इसलिए हिमाचल को देवभूमि के नाम से भी जाना जाता है। जन्म से लेकर मृत्यु तक तथा जीवन में होने वाली प्रत्येक प्रिय-अप्रिय घटना तक जन सामान्य पर देवताओं का प्रभाव रहता है। देवता केवल किसी एक स्थान विशेष तक सीमित नहीं कि जहां कभी-कभी उनकी पूजा अराधना की जाए बल्कि वह सामान्य जीवन का एक भाग है।

अपने रोजमर्रा के कार्य लोग देवताओं का स्मरण करके आरंभ करते हैं तथा देवताओं का नाम लेकर रात्रि विश्राम करते हैं।
आज की वैज्ञानिक पीढ़ी में नई-नई वैज्ञानिक खोजें होने के बावजूद भी हिमाचल की आम जनता अपने देवी-देवताओं के विषय में बहुत संवेदनशील और भावुक है और अगाध श्रद्धा एवं प्रेम का भाव रखती है। हिमाचल प्रदेश 30 देसी और पहाड़ी रियासतों के विलय से अस्तित्व में आया है। प्रत्येक रियासत की अलग-अलग संस्कृति होने के कारण हिमाचल की सांस्कृतिक विरासत व परम्परा अपने आप में विशिष्ट है।

हिमाचल प्रदेश का जिला शिमला राजनैतिक, भौगोलिक एवं ऐतिहासिक दृष्टि से जितना महत्वपूर्ण है, उतना ही महत्वपूर्ण सांस्कृतिक दृष्टि से भी है। इस पूरे जिला में देव संस्कृति का बहुत अधिक प्रभाव है। चाहे वह चैपाल और जुब्बल का क्षेत्र हो चाहे सीमावर्ती जिला किन्नौर के साथ लगता रोहडू उपमण्डल। प्रत्येक पहाड़ी, नदियों के किनारे जल स्त्रोतों पर आपको देवी-देवताओं के दर्शन होंगे। मूल रूप से देवताओं को मान्यता के आधार पर तीन तरह से देखा जाता है। जैसे एक परिवार का देवता जिसे कुल देवता कहा जाता है। फिर ग्राम देवता जो किसी एक गांव का देवता होता है। तीसरा वह देवता जो बहुत सारे गांवों का अथवा पूरी घाटी का देवता होता है।

यद्यपि इन तीनों के अतिरिक्त भी अन्य प्रकार के देवी-देवता हैं किन्तु मूल रूप से यही तीन प्रकार के देवता प्रचलन अथवा मान्यता में है। इन सभी देवी-देवताओं के समय-समय पर मेले व त्यौहार भी आयोजित किए जाते हैं, जो वार्षिक भी होते और कुछ महीने अथवा 6 महीने के अंतराल में भी मनाए जाते हैं। किन्तु कुछ उत्सव अथवा महायज्ञ ऐसे होते हैं, जिन्हें 30, 40 व 50 वर्षों के उपरांत मनाया जाता है, जिसमें मुख्यतः शांत अथवा शांद, भूण्डा, भोज़ इत्यादि शामिल हैं। इन उत्सवों में काफी बड़ी संख्या में लोग एकत्रित होते हैं, जिनकी संख्या लाखों तक पहुंच जाती है। इन समारोहों में शामिल होने वाले देवताओं की संख्या भी 10 अथवा 15 तक होती है, जिनके साथ उनके श्रद्धालु भी बड़ी संख्या में ऐसे समारोहों में भाग लेते हैं।

इसी प्रकार का एक समारोह ‘शांत महायज्ञ’ पिछले दिनों (7, 8 व 9 जनवरी, 2024) को रोहडू उपमण्डल के गवास गांव में मनाया गया, जिसमें लगभग 15 देवी-देवताओं सहित 1 लाख 15 हजार के करीब लोगों ने भाग लिया। हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री ठाकुर सुखविंदर सिंह सुक्खू सहित कैबिनेट के अन्य मंत्री जिसमें शिक्षा मंत्री रोहित ठाकुर, लोक निर्माण मंत्री विक्रमादित्य सिंह, मुख्य संसदीय सचिव एवं विधायक रोहडू विधानसभा क्षेत्र मोहन लाल ब्राक्टा तथा सांसद मण्डी लोक सभा प्रतिभा सिंह के अतिरिक्त अन्य अधिकारियों एवं कर्मचारियों ने भी इस आयोजन में हिस्सा लिया।

शांत महायज्ञ मुख्य रूप से शिमला जिला के ऊपरी क्षेत्र में मनाया जाने वाला पर्व है, जिसका उद्देश्य संबंधित देवता की पूजा अर्चना तथा क्षेत्र में शांति एवं समृद्धि है। यह पर्व 3 दिनों का होता है, जिसमें पहले दिन सभी आमंत्रित देवता पूजा स्थल पर एकत्रित होते हैं। इसे स्थानीय भाषा में ‘संघेड़ा’ कहा जाता है। इस दिन ब्राहम्णों द्वारा एक विशेष प्रकार का मंडप बनाया जाता है। इस मंडप में विधिवत पूजा के बाद अंत में देवताओं की पालकियां, जिनकी संख्या 1, 2 अथवा 4 तक भी हो सकती है, आकर नृत्य करती हैं। साथ ही देवताओं के साथ आए श्रद्धालु भी मंडप पर आकर नृत्य शुरू कर देते हैं। इस प्रक्रिया में मण्डप को मिटा दिया जाता है तथा लोग विधिवत देवताओं की आज्ञा से शांत की शुरुआत करते हैं। इस पूरी प्रक्रिया को ‘छुंबोड़छन’ अथवा ‘छुंबोड़छनी’ कहा जाता है। इस आयोजन में मुख्यतः जटाधारी पालकियों वाले देवता तथा ‘परशुराम देवता’ भाग लेते हैं।

यहां पर स्पष्ट करना आवश्यक है कि परशुराम मूल रूप से ब्राहम्णों के देवता है, जिनका कोई रथ अथवा पालकी नहीं है अपितु एक बड़े कलश के रूप में उनकी पूजा अर्चना होती है। शांत के दूसरे दिन मंदिर की छत पर पूजा की जाती है, जिसे ‘शिखा पूजन’ कहा जाता है। इस आयोजन में 9 अथवा 11 ब्राह्मण मंदिर के छत पर कलश स्थापना करते हैं तथा मंदिर के चारों ओर पर्वतों और चोटियों पर निवास करने वाली कालियों का आह्वान करते हैं तथा उन्हें ‘बलि’ अर्पण करते हैं।

कुछ दशकों पूर्व यह बलि पशुओं के रूप में दी जाती थी किन्तु हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के निर्णय के बाद पशुओं की बलि पर रोक लगा दी गई है। साथ ही देवताओं के माली (माध्यम) भी मंदिर की छत पर होते हैं। इसी दिन गांव के लोगों को किसी बुरी आपदा एवं दुखों से बचाने के लिए तथा गांव में सुख समृद्धि हेतु पूरे गांव के चारों ओर कुछ देवता अपने देवलुओं एवं श्रद्धालुओं सहित एक चक्कर लगाते हैं, जिसे ‘फेर’ कहा जाता है। इस प्रक्रिया में सर्वप्रथम ढोल नगाड़े एवं अन्य वाद्ययंत्रों सहित बजंतरी लोग सबसे आगे होते हैं। उसके बाद देवताओं के माली और देवताओं के रथ चलते हैं, जिनके साथ अपार जनसमूह नाचते गाते हुए पूरे गांव का चक्कर पूरा करते हैं। इस बीच विभिन्न प्रकार की बलियां भी दी जाती है, जिसमें नारियल, कद्दू इत्यादि शामिल रहते हैं।

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